संजय कुमार वर्मा की रिपोर्ट
आज देश के हर क्षेत्र में पीडीएफ अखबार की बाढ सी आ गई है। इन पीडीएफ अखबार के संपादक और संवाददाताओं को पत्रकारिता का कितना ज्ञान है और उससे आज की पत्रकारिता का क्या हाल हो रहा है?आइए जानते हैं इस पर विस्तार से चर्चा

यह जो खबर प्रस्तुत की गई है – “अधिकारियों की मिलीभगत से चल रहा बिना मान्यता स्कूल” – एक नजर में इसे एक जनहित की रिपोर्ट माना जा सकता है, लेकिन पत्रकारिता की दृष्टि से जब हम इसकी गहराई में उतरते हैं, तो यह स्पष्ट होता है कि यह खबर सतही, अपुष्ट तथ्यों, भावनात्मक आरोपों और अराजक शैली की उपज है, जो आज की तथाकथित “लोकल पत्रकारिता” की बड़ी समस्या को उजागर करती है।
❌पत्रकारिता के बुनियादी मानकों की अनदेखी
1. तथ्यात्मक आधारहीनता: इस खबर में कई गंभीर आरोप लगाए गए हैं – जैसे “अधिकारियों की मिलीभगत”, “मनमानी फीस वसूली”, “शोषण”, “फर्जी स्कूल” – लेकिन एक भी प्रमाण, दस्तावेज़, बयान या आधिकारिक प्रतिक्रिया खबर में शामिल नहीं है। यह सिर्फ सुनी-सुनाई बातों पर आधारित एक भावनात्मक प्रहार है।
2. भाषा की अनगढ़ता और नाटकीयता: खबर की भाषा में ज़रूरत से ज़्यादा नाटकीयता है – “पान की दुकान की तरह पीसीओ खुलना”, “अब ढूंढ़ने से भी नहीं मिलते”, “शोषण की दुकानें”, “खुली लूट” – ये सब पत्रकारिता नहीं, बल्कि सनसनी फैलाने की कोशिशें हैं।
3. किसी पक्ष की प्रतिक्रिया नहीं: खबर में न तो शिक्षा विभाग के किसी अधिकारी की प्रतिक्रिया है, न ही किसी स्कूल संचालक का पक्ष लिया गया है। पत्रकारिता का मूल सिद्धांत “दोनों पक्षों को स्थान देना” होता है, जो पूरी तरह नदारद है।
4. दूसरी खबरों की नकल: इस तरह की भाषा और आरोप आजकल सोशल मीडिया पोस्ट्स, यूट्यूब चैनलों या लोकल ‘क्राइम रिपोर्ट’ स्टाइल वीडियो में आम हो चुकी हैं। यह पत्रकारिता नहीं, बल्कि भीड़ का शोर है।
🚨 ‘गली-गली पत्रकारों’ की बाढ़ और गिरती विश्वसनीयता:
आज हर कस्बे, गांव, तहसील में “माइक पकड़े” या “फेसबुक लाइव” करने वाले पत्रकारों की बाढ़ आ चुकी है। बिना किसी पत्रकारिता प्रशिक्षण, नैतिकता या कानूनी जिम्मेदारी के लोग खुद को पत्रकार घोषित कर रहे हैं। यही कारण है कि:
- सत्यापन के बिना खबरें छप रही हैं।
- जनता का ध्यान भटकाने वाली रिपोर्टिंग हो रही है।
- पब्लिक का मीडिया से विश्वास उठ रहा है।
इस खबर को पढ़कर यह कहना गलत नहीं होगा कि यह एक निजी एजेंडा या मनमानी राय पर आधारित है, जो तथ्यों पर नहीं, भावनाओं पर टिकी है।
⚖️ क्या होनी चाहिए थी एक ज़िम्मेदार रिपोर्टिंग?
- क्या वाकई स्कूल बिना मान्यता के चल रहे हैं?
- → RTI या शिक्षा विभाग से लिखित पुष्टि लेकर प्रमाण देना चाहिए था।
- कितने स्कूल हैं? किनके नाम पर चल रहे हैं?
- → स्कूल संचालकों से बात कर उनका पक्ष भी देना चाहिए था।
- विभागीय कार्रवाई क्यों नहीं हो रही?
- → जिलाधिकारी या बीएसए (Basic Shiksha Adhikari) का जवाब ज़रूरी था।
- छात्रों और अभिभावकों से बातचीत?
- → वास्तविक शोषण की तस्वीर तभी साफ होती।
यह खबर एक गंभीर और संवेदनशील मुद्दे को लेकर बनाई गई है लेकिन उसकी प्रस्तुति एक अप्रशिक्षित, पक्षपाती और अधकचरी पत्रकारिता का उदाहरण है। जब गली-गली पत्रकार पैदा हो जाते हैं और मीडिया संस्थान बिना जांच के कुछ भी छाप देते हैं, तब लोकतंत्र की ‘चौथी सत्ता’ की साख खतरे में पड़ जाती है।
ऐसी पत्रकारिता का स्पष्ट निंदा किया जाना चाहिए और मीडिया संस्थानों को चाहिए कि वे प्रशिक्षण, संपादन और नैतिकता पर जोर दें — न कि सिर्फ ‘खबर के नाम पर हेडलाइन बेचने’ की होड़ लगाएं।
पत्रकारिता की साख बचानी है, तो ‘माइकधारी’ भीड़ को नहीं, प्रशिक्षित, सत्यनिष्ठ और उत्तरदायी पत्रकारों को ही मंच देना होगा।