Monday, July 21, 2025
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बादल तो आए थे जैसे कोई पुराना वादा निभाने… मगर लौट गए बिना कुछ कहे

अनिल अनूप

मौन आकाश में छाए काले-काले बादल, जिनके गर्जन से दिल कसमसाता है, जिनके रंग से धरती की तपिश उम्मीदों में पिघलने लगती है — उन्हीं बादलों ने फिर से मुझे धोखा दिया। जैसे कोई पुराना प्रेमी “बस पाँच मिनट में आता हूँ” कहकर जीवन भर न लौटे, वैसे ही ये बादल भी मेरी छत पर मंडराकर न जाने किस अनदेखी दिशा की ओर बह गए।

मौसम से मेरी पहली भेंट

मौसम महाराज से मेरा रिश्ता बहुत पुराना है — शायद उतना ही पुराना, जितना कि एक प्रेमी का अपनी प्रेमिका की जुल्फों से। बचपन में गर्मियों की तपिश जब हमारी त्वचा को तवे पर रोटी की तरह सेंक रही होती, तब दूर क्षितिज पर मंडराते ये काले बादल किसी देवदूत की तरह प्रतीत होते थे।

बादलों से बा-वस्ता

“अब तो बारिश होगी!” — यही उम्मीद मन में तैरने लगती थी, और हम सभी मोहल्ले के बच्चे किसी युद्ध सेनानी की भाँति छतों पर मोर्चा संभाल लेते थे। हाथ में कागज़ की नाव, आँखों में बारिश की झिलमिलाहट… लेकिन हर बार वही हुआ जो एक अच्छे टीवी सीरियल में होता है — क्लाइमैक्स आते-आते ‘नेक्स्ट एपिसोड’ की झुनझुनी थमा दी जाती थी।

बादलों की ‘बॉडी लैंग्वेज’ और मन का भ्रम

बादलों की चालाकी को अगर शब्दों में बाँधना हो, तो मैं यही कहूँगा — “ये काले-काले बादल भावनाओं के जालिम व्यापारी हैं।”

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कभी ये धीमे-धीमे गरजते हैं, जैसे प्रेमिका रूठ कर कह रही हो, “कुछ नहीं हुआ मुझे!”

कभी ये अचानक बिजली चमका देते हैं, जैसे चिठ्ठी में ‘PS’ में लिखा गया कोई प्रेम निवेदन।

और फिर… फिर न एक बूँद बरसती है, न एक छींटा उड़ता है।

“अरे, ये तो ‘ड्राई थंडरस्टॉर्म’ है!” — मौसम विभाग के एक लाचार से कर्मचारी ने एक बार कहा था।

मैंने पूछा, “ड्राई क्यों है भैया?”

वो बोला, “बस… भावनाओं वाला बादल है। पानी वाला नहीं।”

मौसम की राजनीतिक समझदारी

मुझे अब यकीन हो चला है कि मौसम महाराज भी किसी अनुभवी नेता की तरह हो गए हैं।

जब चाहें, जहाँ चाहें, मन बना लें, घोषणा कर दें — “आज बारिश होगी”, और फिर ठहाका लगाते हुए सूखा छोड़ जाएँ।

कभी-कभी तो लगता है, ये बादल भी सोशल मीडिया स्क्रॉल करते हैं —

“अरे! दिल्ली वाले नाराज़ हैं बारिश से, अच्छा चलो वहाँ नहीं जाते।”

“बिहार में बारिश की माँग है? अच्छा… थोड़ा गरज कर डराते हैं, पर बूँद नहीं गिराएँगे। Suspense बनाए रखें।”

प्रेम और बारिश — एक धोखेबाज रिश्ता

बारिश का इंतज़ार एकतरफा प्रेम जैसा है।

हम अपने आँगन को सजाते हैं, छत को धोते हैं, फुहारों के स्वागत में गर्म चाय और पकौड़े तक फ्राई कर देते हैं — और फिर, वही मौन।

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बादल आते हैं, ठहरते हैं, चाय की खुशबू लेते हैं, और बिना बोले निकल जाते हैं — मानो Tinder पर किसी ने आपको ‘मैच’ कर लिया हो और फिर ‘Seen’ करके गायब हो गया हो।

मौसम विभाग की शायरी

अब इन सबके बीच बेचारा मौसम विभाग भी है।

हर बार उनकी भविष्यवाणी “70% बारिश की संभावना” पर टिक जाती है।

हम पूछते हैं, “भाई, 70% क्यों? साफ-साफ क्यों नहीं कहते होगा या नहीं?”

वो बोले, “बाँकी 30% हमारी इज्जत के लिए छोड़ दो।”

उन्हें देखकर मुझे बचपन के वो दोस्त याद आ जाते हैं, जो हर परीक्षा से पहले कहते थे — “कुछ नहीं आया पढ़ा, फेल ही हो जाएंगे” और फिर टॉपर बनकर निकलते थे।

एक दिन की उम्मीद भरी त्रासदी

पिछले सप्ताह की ही बात है। दोपहर के तीन बजे, जब सूरज का घमंड टपकते पसीनों में बह रहा था, तभी अचानक आसमान काला पड़ा। मैं ख़ुशी में झूम उठा।

बुजुर्गों से लेकर बच्चों तक, हर किसी के चेहरे पर आशा की बूंदें चमकने लगीं। मैंने अपनी कुर्सी खिड़की के पास खींची और मोबाइल की प्लेलिस्ट में “रिमझिम गिरे सावन” लगा दिया।

लेकिन…

बादलों ने केवल गरजने का अभिनय किया, बिजली फटकार कर डराया और फिर…

फिज़ा को बिना भिगोए, चुपचाप, अनसुना छोड़कर चले गए।

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भावनाओं की अदालत में मौसम पर मुकदमा

अब मैं मौसम महाराज पर “भावनात्मक अत्याचार” का मुकदमा दर्ज करना चाहता हूँ।

धारा 420: झूठे वादे करना (बारिश का वादा)।

धारा 509: भावनाओं के साथ खिलवाड़।

धारा 325: चाय और पकौड़ों की बर्बादी।

साक्ष्य: गीली न हुई धरती, पर नम हुई आँखें।

गवाह: बिजली, जो सिर्फ चमकी — बरसी नहीं।

— थोड़ी शिकायत, थोड़ी उम्मीद

मौसम महाराज, मेरी आपसे कोई व्यक्तिगत दुश्मनी नहीं है।

आपके आने की आहट, आपके गर्जन की गूँज और आपकी फुहारों की ठंडक — सब मुझे प्रिय हैं।

पर बस इतनी सी बात है — जब बरसने का मन न हो, तो छत पर मंडराइए मत।

हम संवेदनशील लोग हैं, छाँव की कल्पना में ही भीग जाते हैं।

हमारी भावनाओं से मत खेलिए, हम प्रेमी हैं — मौसम विज्ञान के नहीं, दिल के।

और अगली बार जब बादल मंडराएँ, तो या तो बरसें…

या फिर खुलकर कह दें — “आज नहीं आएँगे, चाय ठंडी न करना।”

अंत में एक विनम्र अनुरोध:

हे प्रभु!

इन बादलों को थोड़ा संयम सिखाइए।

या तो बरसें, या Instagram Story डालकर कहें — “Out of station for the week”

कम से कम हम उम्मीदें तो न पालें…

(लेखक: एक भावनात्मक रूप से भीगा, पर शारीरिक रूप से सूखा नागरिक)

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