पटना के ऐतिहासिक गांधी मैदान में आयोजित ‘सनातन महाकुंभ’ और ‘शरिया लाओ’ जैसी सभाओं में धर्म और राजनीति का मिलाजुला रूप सामने आया। यह आलेख गहराई से विश्लेषण करता है कि कैसे साधु-संतों का मंच अब राजनीतिक प्रचार का साधन बनता जा रहा है, जबकि सामाजिक मुद्दे पीछे छूटते जा रहे हैं।
अंजनी कुमार त्रिपाठी की रिपोर्ट
पटना का गांधी मैदान केवल एक ऐतिहासिक स्थल भर नहीं है, बल्कि यह भारत के जनांदोलनों और स्वतंत्रता संग्राम की गवाह भी रहा है। किंतु हाल के दिनों में यह मैदान दो विरोधाभासी लेकिन एक समान प्रवृत्ति के आयोजनों का साक्षी बना—एक ओर वक्फ संशोधन कानून को लेकर ‘शरिया लाओ’ की उद्घोषणा, तो दूसरी ओर भगवान परशुराम के जन्मोत्सव की आड़ में ‘सनातन महाकुंभ’ का आयोजन। यद्यपि दोनों आयोजनों का बाह्य स्वरूप धार्मिक था, परंतु उनकी अंतर्वस्तु और मंशा स्पष्टतः राजनीतिक प्रतीत हुई।
‘सनातन महाकुंभ’ का आयोजन पूर्व केंद्रीय मंत्री अश्विनी चौबे के नेतृत्व में हुआ। यदि इस मंच से सनातन धर्म के सिद्धांतों पर चिंतन होता, विचार-विमर्श किया जाता और आध्यात्मिक जागरण का प्रयास होता, तो यह आयोजन सांस्कृतिक और धार्मिक माना जा सकता था। परंतु इसके मंच से जो वक्तव्य आए, वे धर्म से अधिक राजनीति की ओर झुके हुए थे।
बाबा बागेश्वर की हुंकार और राजनीतिक संकेत
बाबा धीरेंद्र शास्त्री, जिन्हें बागेश्वर बाबा के रूप में जाना जाता है, इस आयोजन के प्रमुख आकर्षण रहे। उन्होंने स्पष्ट किया कि वह राजनीति के लिए नहीं, रामनीति के लिए आए हैं। यद्यपि यह कथन आध्यात्मिक प्रतीत होता है, परंतु जब वह यह कहते हैं कि “भारत जब हिंदू राष्ट्र बनेगा, तो बिहार पहला हिंदू राज्य होगा,” तब यह वक्तव्य सीधे-सीधे राजनीतिक संदर्भ में देखा जाता है।
उनकी यह बात कि “हमें ‘गजवा-ए-हिंद’ नहीं, ‘भगवा-ए-हिंद’ बनाना है,” सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का संकेत देती है। इस तरह के कथन सामाजिक समरसता के स्थान पर धार्मिक बहुसंख्यकवाद को बढ़ावा देते हैं। उन्होंने यहां तक कहा कि “हम उन सभी पार्टियों के साथ हैं, जिनमें हिंदू हैं।” यह वाक्य गहराई से देखा जाए, तो राजनीति में धर्म आधारित समर्थन का एक खुला ऐलान है।
जगद्गुरु रामभद्राचार्य की तीव्र भाषा और राजनीतिक प्रवृत्ति
जगद्गुरु रामभद्राचार्य जैसे विद्वान और सम्मानित संत का आक्रोश भी इस आयोजन में स्पष्ट रूप से झलका। उन्होंने लालू यादव पर अप्रत्यक्ष रूप से हमला करते हुए ‘चारा घोटाले’ का उल्लेख किया और कहा कि “हम पशुओं का चारा नहीं खाते।”
यह टिप्पणी एक साधु के लिए असामान्य प्रतीत होती है, विशेषतः जब उन्हें हाल ही में भारत सरकार द्वारा ‘पद्मविभूषण’ से अलंकृत किया गया हो।
उनकी यह भविष्यवाणी भी कि “राष्ट्र-विरोधियों, राम-विरोधियों को सत्ता नहीं दी जाएगी,” न केवल राजनीतिक हस्तक्षेप का संकेत है, बल्कि लोकतांत्रिक मूल्यों के विरुद्ध भी खड़ी होती है। जब वे कहते हैं कि “जो सनातन को मिटाना चाहेगा, वह स्वयं मिट जाएगा,” तो यह भाषा अधिक आक्रामक और विभाजनकारी प्रतीत होती है, न कि एक संत की शांति और सहिष्णुता से भरी हुई।
बुनियादी मुद्दों से दूरी और सामाजिक सरोकारों की उपेक्षा
गौरतलब है कि बिहार जैसे राज्य, जहां गरीबी, अशिक्षा, पलायन और अपराध जैसी समस्याएं विकराल हैं, वहां के एक बड़े आयोजन में इन मुद्दों पर कोई चर्चा न होना गहरी चिंता का विषय है। जब एक मंच पर इतने साधु-संत, राज्यपाल और उपमुख्यमंत्री उपस्थित हों, तब यह अपेक्षा की जाती है कि वे समाज के बुनियादी सरोकारों पर भी दृष्टिपात करें। किंतु यह मंच पूर्णतः धार्मिक प्रतीकों और राजनीतिक एजेंडों से भरा रहा।
आलोच्य तथ्य यह भी है कि इस कार्यक्रम को ‘महाकुंभ’ जैसा नाम देकर उस शब्द की गरिमा को कम किया गया। कुम्भ का अर्थ है अध्यात्म, आत्मशुद्धि, समर्पण और संयम, जबकि यहां उसका स्वरूप उग्र राजनीतिक भाषणों में बदल गया।
जातीय गणना और सामाजिक विभाजन
जगद्गुरु रामभद्राचार्य द्वारा जातीय गणना का विरोध करना भी विवादास्पद रहा। जब समाज में सामाजिक न्याय और प्रतिनिधित्व की मांग हो, उस समय इस विरोध को वंचित वर्गों की आकांक्षाओं की अनदेखी के रूप में देखा जाएगा।
धर्म का राजनीतिक हथियार के रूप में उपयोग
इन दोनों आयोजनों की मूलभूत समानता यह है कि दोनों ने धर्म को राजनीतिक ध्रुवीकरण का औजार बनाया। एक ओर ‘शरिया लाओ’ की मांग की गई, तो दूसरी ओर ‘हिंदू राष्ट्र’ की स्थापना का आह्वान किया गया। यह प्रवृत्ति न केवल भारतीय लोकतंत्र के लिए चिंताजनक है, बल्कि धर्म की मूल आत्मा—जो प्रेम, करुणा और सहिष्णुता पर आधारित है—के भी प्रतिकूल है।
धर्माचार्यों का कार्य समाज को जोड़ना, दिशा देना और नैतिक मूल्यों को बढ़ावा देना होता है। किंतु जब वे स्वयं राजनीति का प्रचारक बन जाएं, तो यह धर्म और राजनीति, दोनों के लिए विघटनकारी साबित होता है।
संक्षेप में, गांधी मैदान में जो कुछ हुआ, वह धार्मिक चेतना से अधिक राजनीतिक रणनीति का हिस्सा लगता है। भारत जैसे बहुधार्मिक और बहुजातीय देश में यदि साधु-संत भी चुनावी एजेंडों का हिस्सा बनने लगें, तो यह एक खतरनाक संकेत है—एक ऐसा संकेत, जो धर्म को समाज की सेवा से हटाकर सत्ता की सीढ़ी बना देता है।