12 जून 1975: भारतीय राजनीति का वह दिन जब गूंज उठा लोकतंत्र का असली स्वर भारतीय लोकतंत्र में कई मोड़ आए, लेकिन 12 जून 1975 का दिन वह दिन था जब न्यायपालिका की एक आवाज़ ने देश की सबसे ताकतवर नेता इंदिरा गांधी की सत्ता को हिलाकर रख दिया। यह सिर्फ एक अदालत का फैसला नहीं था, बल्कि यह उस आदमी की जीत थी, जिसे लोग पागल, सनकी और हठी कहते थे—राजनारायण।
संजय कुमार वर्मा की रिपोर्ट
यह कहानी है उस एक फैसले की, जिसने भारतीय राजनीति को हिला दिया, एक आपातकाल की नींव रखी और आखिरकार सत्ता परिवर्तन का रास्ता खोला।
राजनारायण: एक ‘असाधारण’ समाजवादी
राजनारायण, एक ऐसा नाम जो राजनीति में हार मानने को अपमान समझता था। आजादी से पहले से राजनीति में सक्रिय, कड़क विचारों वाले समाजवादी। उन्हें सत्ता की ललच नहीं थी, बल्कि व्यवस्था को बदलने की भूख थी। जब उन्होंने 1971 में रायबरेली से प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के खिलाफ चुनाव लड़ा, तो उनकी हार सुनिश्चित मानी जा रही थी—and they lost, badly. एक लाख से ज्यादा वोटों से हार गए।
लेकिन यहीं से शुरू होती है असली लड़ाई
राजनारायण ने आरोप लगाया कि इंदिरा गांधी ने चुनाव में भारी पैमाने पर सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग किया—सरकारी कर्मचारी यशपाल कपूर को निजी चुनावी एजेंट बनाया गया, सरकारी विमान, गाड़ियाँ और अफसरों को प्रचार में झोंका गया।
इलाहाबाद हाईकोर्ट: जहां लोकतंत्र ने फिर सिर उठाया
राजनारायण ने हार के बाद सीधे अदालत की शरण ली। चार साल तक केस चलता रहा। सामने थे दस्तावेज, गवाह, तर्क और कानून।
इस केस की सुनवाई कर रहे थे न्यायमूर्ति जगमोहनलाल सिन्हा, जो एक शांत, सख्त और सिद्धांतवादी जज के रूप में जाने जाते थे।
12 जून 1975 को जैसे ही उनका फैसला आया—पूरे देश की राजनीति में भूचाल आ गया।
फैसला था: इंदिरा गांधी ने चुनाव में सरकारी संसाधनों का अनुचित लाभ लिया। उनका चुनाव अवैध घोषित किया गया और उन्हें 6 साल तक किसी भी निर्वाचित पद के लिए अयोग्य ठहरा दिया गया।
इस फैसले का असर?
सत्ता की चूलें हिल गईं। प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठी इंदिरा गांधी अब संविधानिक रूप से अस्थिर थीं। एक आम आदमी ने सत्ता के शीर्ष पर बैठे नेता को अदालत में हरा दिया था।
जज सिन्हा की ईमानदारी की मिसाल
जस्टिस सिन्हा ने इस फैसले को लिखने से पहले खुद को मीडिया, राजनीतिक दबाव, यहां तक कि अपने परिवार से भी अलग कर लिया था। यह फैसला लिखते समय उन्होंने किसी को भी मिलने की अनुमति नहीं दी—यह लोकतंत्र के प्रति उनकी प्रतिबद्धता का प्रतीक था।
सुप्रीम कोर्ट में भी नहीं मिली संपूर्ण राहत
इंदिरा गांधी ने हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। जस्टिस वी. आर. कृष्ण अय्यर ने उन्हें आंशिक राहत दी—वे प्रधानमंत्री बनी रह सकती हैं लेकिन न संसद में वोट डाल सकती हैं, न बहस में हिस्सा ले सकती हैं।
यह राहत नहीं, एक राजनीतिक संकट था। विपक्ष इस मौके को भांप चुका था।
जेपी आंदोलन और जनता की हुंकार
इस फैसले ने जेपी (जयप्रकाश नारायण) आंदोलन को नई ऊर्जा दी। “सिंहासन खाली करो, जनता आती है” जैसे नारों ने सत्ता के गलियारों में हलचल मचा दी। देशभर में प्रदर्शन होने लगे। छात्र, नौजवान, मजदूर—हर वर्ग सड़कों पर उतर आया।
इंदिरा गांधी को लगा कि स्थिति हाथ से निकल रही है। और तब—
- 25 जून 1975: जब लोकतंत्र को बंदी बना लिया गया
- राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद की सिफारिश पर देश में आपातकाल लागू कर दिया गया।
- प्रेस पर सेंसरशिप
- विपक्ष के नेता गिरफ्तार
- नागरिक अधिकार निलंबित
- संसद और न्यायपालिका पर नियंत्रण
- राजनारायण को भी गिरफ्तार कर लिया गया।
- देश को अंधेरे में धकेल दिया गया।
1977: जनता ने दिया लोकतंत्र का सबसे बड़ा जवाब
आपातकाल के 21 महीनों बाद जब चुनाव हुए, तो जनता ने वोट की चोट से सत्ता का हिसाब कर दिया।
राजनारायण फिर रायबरेली से चुनाव लड़े—इस बार फिर इंदिरा गांधी के खिलाफ।
और इतिहास ने करवट ली।
इंदिरा गांधी रायबरेली से चुनाव हार गईं।
राजनारायण ने उन्हें लोकतंत्र के मंच पर हराया। जनता पार्टी सत्ता में आई, और राजनारायण को स्वास्थ्य मंत्री बनाया गया। लेकिन उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि सत्ता नहीं थी, बल्कि यह था कि उन्होंने साबित किया कि एक आम आदमी भी देश की सबसे ताकतवर नेता को चुनौती देकर इतिहास रच सकता है।
एक फैसले ने बदल दी भारतीय राजनीति की दिशा
12 जून 1975 सिर्फ एक तारीख नहीं है,
यह उस न्याय की जीत है, जो संविधान की आत्मा से जुड़ा है।
यह उस हठधर्मी समाजवादी की जिद है, जिसने व्यवस्था को आईना दिखाया।
यह उस लोकतंत्र की पुकार है, जो कभी-कभी अदालत की चारदीवारी से निकलकर देश की सड़कों पर गूंज उठती है।