धनुषकोडी की 1964 की त्रासदी सिर्फ एक प्राकृतिक आपदा नहीं थी, बल्कि इंसानी लाचारी, प्रकृति की भयावह शक्ति और एक पूरे नगर के विलुप्त हो जाने की हृदयविदारक गाथा है। पढ़ें इस भीषण रात की पूरी कहानी, जो इतिहास में अमिट बन गई।
मोहन द्विवेदी की खास रिपोर्ट
🌊 वो रात जो कभी नहीं भुलाई जा सकती…
भारत के इतिहास में कुछ घटनाएं ऐसी होती हैं, जो सिर्फ तारीख नहीं रहतीं—वो एक टीस बन जाती हैं, एक चेतावनी बन जाती हैं। 22-23 दिसंबर 1964 की रात भी कुछ ऐसी ही थी। तमिलनाडु के दक्षिणी छोर पर बसा धनुषकोडी उस रात सोया नहीं था, बल्कि चुपचाप समंदर की गोद में समा गया।
वो सिर्फ एक बाढ़ नहीं थी, वो इंसानी विवशता पर प्रकृति के कहर की मुहर थी। वो सिर्फ एक ट्रेन दुर्घटना नहीं थी, वो सैकड़ों सपनों के ताबूत का सफर था।
🕯️ धनुषकोडी: जहाँ रामसेतु की कहानी शुरू होती है…
कभी पौराणिकता और व्यापार का संगम रहा धनुषकोडी, श्रीराम के रामसेतु का प्रारंभिक बिंदु था। यहाँ स्टेशन था, चर्च था, बाजार और मंदिर थे। लेकिन किसे पता था कि यह चहल-पहल एक दिन सन्नाटे में बदल जाएगी?
यह नगर श्रीलंका से मात्र 18 किलोमीटर दूर था और पंबन ब्रिज के माध्यम से देश के बाकी हिस्सों से जुड़ा हुआ था। लेकिन प्रकृति ने जो लिखा था, वह किसी को नज़र नहीं आया…
🌪️ चक्रवात की चेतावनी और बेबस इंतज़ार
22 दिसंबर 1964 की शाम, जब मौसम विभाग ने एक शक्तिशाली चक्रवात की चेतावनी दी, तबतक बहुत देर हो चुकी थी। संचार व्यवस्था सीमित थी, लोगों तक खबर पहुँचने से पहले ही समंदर ने रौद्र रूप ले लिया।
लगभग 240 से 280 किमी प्रति घंटा की रफ्तार से आई हवाओं ने सब कुछ उड़ाकर रख दिया। और फिर… वो लहरें आईं… 25 फीट ऊंची, बेकाबू और बेरहम।
🚂 पंबन एक्सप्रेस: जो कभी वापस नहीं लौटी
उस रात पैसेंजर ट्रेन नंबर 653, रामेश्वरम से धनुषकोडी की ओर बढ़ रही थी। लगभग 110 से अधिक यात्री उसमें सवार थे। ट्रेन ने जैसे ही पंबन ब्रिज पार किया और स्टेशन के करीब पहुंची, तभी एक प्रलयंकारी लहर ने पूरे डिब्बों को निगल लिया।
कुछ ही पलों में ट्रेन, यात्री और रेलवे कर्मचारी—सभी समुद्र की गर्जना में खो गए।
🧱 धनुषकोडी: जो कल तक था, आज खंडहर है
रेलवे स्टेशन, चर्च, पोस्ट ऑफिस, मंदिर… सब कुछ या तो मलबे में बदल गया या समंदर की गहराइयों में चला गया। तमिलनाडु सरकार ने इसे ‘मानव निवास के लिए अनुपयुक्त’ घोषित कर दिया।
लगभग 1800 से अधिक लोगों की मौत दर्ज की गई, लेकिन सच्चाई इससे कहीं ज़्यादा दर्दनाक है। कई लोग कभी मिले ही नहीं।
🛠️ बचाव, लेकिन बहुत देर बाद…
भारतीय नौसेना और वायुसेना के प्रयासों के बावजूद, समुद्र की प्रचंडता और टूटी संचार व्यवस्था ने राहत कार्यों को बहुत मुश्किल बना दिया। लाशें मिलीं, पर कुछ लोग तो ऐसे थे—जिनकी यादें ही अंतिम सबूत बनीं।
🛤️ पंबन ब्रिज: जो डगमगाया, लेकिन गिरा नहीं
चक्रवात ने इस ऐतिहासिक पुल को भी नहीं बख्शा। लेकिन इंसानी हौसले ने हार नहीं मानी। छह महीने में पुल को दोबारा खड़ा किया गया, और यह आज भी मजबूती से रेलों को समुद्र के ऊपर से गुजरने देता है।
👻 आज का धनुषकोडी: एक भूतिया शहर
आज वहाँ कोई नहीं रहता—सिर्फ पर्यटक आते हैं, दिन में देखते हैं और लौट जाते हैं। टूटे हुए चर्च, बिखरे मकान, वीरान ट्रैक… हर कोना सिसकता है, हर दीवार कुछ कहती है।
अब कैसा है धनुषकोडी?
रामेश्वरम से धनुषकोडी तक अब एक सुंदर सड़क बनी है। “रामसेतु पॉइंट” तक पहुंचकर, लोग आज भी श्रीलंका का किनारा निहार सकते हैं। लेकिन उस हवा में अब भी नम आंसुओं की ख़ामोशी घुली होती है।
📚 जो यह त्रासदी सिखा गई…
“प्रकृति को हल्के में लेना, विनाश को न्योता देना है।”
धनुषकोडी की त्रासदी ने भारत को मौसम चेतावनी व्यवस्था को मज़बूत करने की प्रेरणा दी। आज पंबन ब्रिज में सेंसर और अलार्म सिस्टम हैं। लेकिन 1964 की वह रात हमें अब भी चेतावनी देती है कि…
हम प्रकृति के सामने क्षणिक हैं—सिर्फ यात्री, बस मुसाफिर।
धनुषकोडी अब सिर्फ एक जगह नहीं, वह एक अनुभव है। एक मूक चीख, एक अनकही कहानी…
वो कहानी जो लहरों की गूंज में आज भी सुनाई देती है।