Monday, July 21, 2025
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इश्क़, तसव्वुफ़ और तन्हाई के दरम्यान: शायर शहरयार की दुनिया

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हिंदुस्तानी शायरी की दुनिया में जब भी अदबी और फ़िल्मी शायरी के मेल की बात होती है, तो शहरयार का नाम एक रौशन सितारे की तरह उभरता है। उनका सफ़र सिर्फ कलाम तक सीमित नहीं रहा, बल्कि उन्होंने इश्क़ के दोनों आयाम — इश्क़े-हक़ीकी (ईश्वरीय प्रेम) और इश्क़े-मजाज़ी (मानवीय प्रेम) — को एक ऐसा फलक दिया, जिसमें शब्द संगीत में ढलकर आत्मा को छूने लगे।

➡️अनिल अनूप

शहरयार की पहचान एक गंभीर, रहस्यवादी और आध्यात्मिक शायर के रूप में रही है। परंतु जब उन्होंने सिनेमा की दुनिया में कदम रखा, तो उन्होंने यह साबित किया कि शायरी चाहे किताबों में हो या परदे पर, उसकी आत्मा अगर सच्ची हो, तो वह हर दिल में उतर सकती है।

शहरयार की शायरी इश्क, खुदा और इंसानी एहसासों की गहराइयों को छूती है। उनके जीवन, लेखन और सिनेमा से जुड़ी खास बातें इस आलेख में पढ़िए।

उर्दू शायरी की दुनिया में कुछ नाम ऐसे होते हैं जो सदी दर सदी दिलों की धड़कनों में समा जाते हैं। ऐसे ही एक नाम हैं — अख़लाक़ मोहम्मद ख़ान ‘शहरयार’। उनकी शायरी में इश्क़ की नज़ाकत है, रूहानी सुकून है और ज़िंदगी की तल्ख़ हकीकतें भी हैं। वे न केवल एक शायर थे, बल्कि एहसासों को अल्फ़ाज़ों में ढालने वाले फनकार भी थे, जिनकी लेखनी ने साहित्य और सिनेमा दोनों में अमिट छाप छोड़ी।

जन्म और प्रारंभिक जीवन

शहरयार का जन्म 6 जून 1936 को उत्तर प्रदेश के आंवला, ज़िला बरेली में हुआ। एक अनुशासित और कठोर माहौल वाले पुलिस एवं फौजी खानदान में पले-बढ़े अख़लाक़ साहब की परवरिश इस ओर इशारा नहीं करती थी कि वे एक दिन शायरी के आसमान पर नक्षत्र की भाँति चमकेंगे। वे स्वयं कहते हैं कि न उनके परिवेश में और न ही उनके भीतर शुरूआती दिनों में शायरी की कोई झलक थी। वे एक होनहार हॉकी खिलाड़ी और एथलीट थे, और उनके पिता उन्हें एक पुलिस अधिकारी के रूप में देखना चाहते थे।

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शायर बनने का सफ़र

लेकिन, शायद क़िस्मत को कुछ और मंज़ूर था। वर्ष 1948 में जब वे अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय पढ़ने आए, तब ज़िंदगी ने एक नया मोड़ लिया। यहीं पर साहित्य, विचारधारा और शायरी की गलियों ने उन्हें आकर्षित किया। उनका कहना था, “मेरे साथ जो कुछ हुआ, वो सब इत्तेफाक़ था। इन सबका कोई तर्कसंगत कारण नहीं है।”

इसी दौर में उन्होंने अपना तख़ल्लुस ‘शहरयार’ अपनाया। दरअसल, शुरू में उनकी रचनाएँ ‘कुँवर अख़लाक़ मोहम्मद ख़ान’ के नाम से प्रकाशित होती थीं, लेकिन उनके दोस्तों को यह नाम कुछ ‘ग़ैर-शायराना’ लगा। एक दोस्त ने सुझाया कि ‘कुँवर’ का उर्दू समकक्ष ‘शहरयार’ है, जिसका अर्थ होता है ‘राजकुमार’। यही नाम फिर उनकी शायरी का पर्याय बन गया।

साहित्यिक योगदान

शहरयार की शायरी में एक अनूठा संयोजन मिलता है — सूफ़ियाना रंग, आधुनिक दृष्टिकोण और गहरी आत्मचिंतन की झलक। उनके प्रमुख काव्य संग्रहों में ‘सातवाँ दर’, ‘हिज्र के मौसम’, ‘ख़्वाब का दर बंद है’, ‘शाम होने वाली है’, ‘नींद की किरचें’ आदि शामिल हैं।

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उनकी शायरी में इश्क़ केवल रूमानी नहीं, बल्कि आध्यात्मिक और दार्शनिक विमर्श का रूप ले लेती है। वे कहते थे कि “किसी एक रंग की शायरी मेरे लिए काफ़ी नहीं होती, मैं हर तरह की शायरी पढ़ता हूँ।”

उनकी लेखनी देवनागरी और उर्दू दोनों लिपियों में समान रूप से प्रकाशित होती रही। यह इस बात का प्रमाण है कि उन्होंने भाषायी सीमाओं को पार कर इंसानी भावनाओं को स्वर दिया।

सिनेमा और शहरयार

शहरयार का फिल्मी सफ़र बहुत लंबा नहीं रहा, परंतु जितना भी रहा, असरदार रहा। उन्होंने जयदेव, शिव-हरि और विशेषकर खय्याम जैसे संगीतकारों के साथ काम किया। ‘गमन’ और ‘आहिस्ता-आहिस्ता’ जैसी फिल्मों के लिए उन्होंने गीत लिखे, लेकिन सबसे अधिक प्रसिद्धि उन्हें वर्ष 1981 में बनी फिल्म उमराव जान से मिली।

‘इन आँखों की मस्ती के मस्ताने हज़ारों हैं’, ‘कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता’, जैसे नग़मे आज भी लोगों के दिलों पर दस्तक देते हैं। उनकी कलम ने नज़्म और ग़ज़ल के बीच की खाई को पाटते हुए सिनेमा में साहित्य की गरिमा को बनाए रखा।

बंबई से दूरी का कारण

जब उनसे पूछा गया कि वे मुंबई की चकाचौंध में क्यों नहीं समा सके, तो उन्होंने बड़ी साफगोई से कहा — “अगर दौलत बिना इज़्ज़त के मिल रही हो, तो मैं उसे कबूल नहीं करता। अलीगढ़ विश्वविद्यालय में पढ़ाने वाला आदमी इज़्ज़त का आदी हो जाता है। और मैं किसी भी कीमत पर अपने मूल्यों से समझौता नहीं कर सकता था।”

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सम्मान और उपलब्धियाँ

शहरयार को उनके साहित्यिक योगदान के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार, ज्ञानपीठ पुरस्कार सहित कई प्रतिष्ठित सम्मानों से नवाज़ा गया। 2011 में चंडीगढ़ हेरिटेज वीक में जब वे शामिल हुए, तो उनसे मिलने वालों की भीड़ ने साबित किया कि उनका नाम केवल किताबों तक सीमित नहीं, लोगों के दिलों में बसता है।

पसंदीदा शायर

वे कहते थे कि मिर्ज़ा ग़ालिब उनके लिए पहले भी सबसे प्रिय थे और आख़िर तक वही प्रिय रहे। उनके अनुसार ग़ालिब की शायरी हर दौर में नई लगती है, जैसे कोई छिपी हुई दुनिया फिर से सामने आ रही हो। इसके अलावा फैज़, फिराक़, इक़बाल, अख्तरुल ईमान भी उनके प्रेरणास्रोत रहे।

शहरयार की शायरी सिर्फ अल्फ़ाज़ों का संयोजन नहीं, बल्कि एक भावनात्मक यात्रा है। उन्होंने जिस सादगी और गरिमा से अपने जज़्बातों को बयाँ किया, वह उन्हें एक साधारण शायर नहीं, एक कालजयी फनकार बनाता है।

उनकी शायरी में आपको मोहब्बत की नज़ाकत, ज़िंदगी की कड़वाहट और रूहानी सुकून — तीनों का संगम मिलेगा। शहरयार आज भले हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनकी शायरी आज भी दिलों में जिंदा है, और शायद हमेशा रहेगी।

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