Sunday, July 20, 2025
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कथावाचन का अधिकार किसका? इटावा कांड के बाद जातीय विमर्श में उलझा धर्मप्रवचन का मंच

इटावा के कथावाचकों के साथ हुए जातीय भेदभाव ने देश में नई बहस छेड़ दी है कि भगवत कथा कहने का अधिकार क्या सिर्फ ब्राह्मणों के पास है? जानें देश के प्रमुख कथावाचकों की जाति और समाज में बदलती धार्मिक धारणाओं की तस्वीर।

संजय सिंह राणा के साथ राधेश्याम प्रजापति की रिपोर्ट

चित्रकूट/लखनऊ। इटावा में हुए कथावाचकों के साथ कथित जातीय भेदभाव और मारपीट के मामले ने पूरे देश में एक नई बहस को जन्म दे दिया है। सवाल यह खड़ा हुआ है कि भगवत कथा जैसे पवित्र मंच पर अधिकार किसका है—क्या यह मंच सभी हिंदुओं के लिए समान रूप से खुला है या फिर यह किसी विशिष्ट जाति की बपौती है?

दरअसल, इटावा जिले में मुकुट मणि यादव और संत सिंह यादव नामक कथावाचकों ने आरोप लगाया है कि कथा कार्यक्रम के दौरान ब्राह्मण यजमानों ने उन्हें सिर्फ इसलिए अपमानित किया और शारीरिक रूप से नुकसान पहुंचाया क्योंकि वे यादव जाति से हैं। इस घटना के बाद न केवल स्थानीय स्तर पर आक्रोश पनपा, बल्कि राष्ट्रीय पटल पर भी यह मुद्दा तूल पकड़ता गया।

विवाद की जड़ें और तीखे तर्क

जहां एक ओर काशी विद्वत परिषद जैसी धार्मिक संस्थाएं यह दावा करती हैं कि भगवत कथा का वाचन सभी हिंदुओं का अधिकार है, वहीं दूसरी ओर शंकराचार्य अविमुक्तेश्वरानंद सरस्वती का यह बयान नई जटिलता खड़ी करता है कि “किसी भी जाति का व्यक्ति अपनी जाति के लोगों को कथा सुना सकता है, परंतु सभी जातियों को भगवत कथा सुनाने का अधिकार केवल ब्राह्मणों को ही है।”

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यह कथन स्वाभाविक रूप से उस वैचारिक द्वंद्व को जन्म देता है जो वर्षों से भारत की धार्मिक और सामाजिक परंपराओं में अंतर्निहित रहा है—कि धर्म का प्रसार और वाचन क्या वर्ण व्यवस्था के अधीन रहेगा या समानता की राह पर चलेगा?

देश के प्रमुख कथावाचकों की जातीय पहचान

इसी बहस के मद्देनज़र, हमने देश के चुनिंदा 10 कथावाचकों की जातीय पृष्ठभूमि का विश्लेषण किया। यह सूची बताती है कि कथावाचन अब सिर्फ एक जाति विशेष तक सीमित नहीं रहा, बल्कि विभिन्न सामाजिक समूहों से आए कथावाचक अब जनता के बीच प्रभावशाली भूमिका निभा रहे हैं।

🔸 अनिरुद्धाचार्य (ब्राह्मण) – मूल नाम अनिरुद्ध राम तिवारी, मध्यप्रदेश के जबलपुर से।

🔸 देवकीनंदन ठाकुर (ब्राह्मण) – उत्तर प्रदेश के मथुरा से।

🔸 बागेश्वर धाम सरकार (ब्राह्मण) – धीरेंद्र कृष्ण शास्त्री, छतरपुर (मप्र) से।

🔸 प्रदीप मिश्रा (ब्राह्मण) – सीहोर (मप्र) के कुबेरेश्वर धाम के मुख्य पुजारी।

🔸 संत रामपाल जी (जाट) – हरियाणा के सोनीपत से, जाति से जाट।

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🔸 भोले बाबा (दलित) – असली नाम सूरजपाल, एटा जिले के दलित परिवार से।

🔸 बाबा रामदेव (यादव) – असली नाम रामकिशन यादव, हरियाणा के महेंद्रगढ़ से।

🔸 मोरारी बापू (ओबीसी) – गुजरात के एक ओबीसी परिवार से।

🔸 जया किशोरी (ब्राह्मण) – राजस्थान के सुजानगढ़ से।

🔸 देवी चित्रलेखा (ब्राह्मण) – हरियाणा के पलवल जिले से।

क्या कथावाचन सिर्फ ब्राह्मणों का विशेषाधिकार है?

यदि इस सूची पर गौर करें तो स्पष्ट होता है कि कथावाचन अब केवल ब्राह्मणों तक सीमित नहीं रहा। यद्यपि अभी भी अधिकांश प्रसिद्ध कथावाचक ब्राह्मण समुदाय से हैं, किंतु दलित, पिछड़ी और अन्य जातियों से आने वाले लोगों ने भी धर्म के इस मंच पर अपनी पकड़ बनाई है।

यह बदलाव न केवल समाज के भीतर एक सकारात्मक संकेत है, बल्कि यह भी दर्शाता है कि आध्यात्मिकता अब जातिगत सीमा रेखाओं को लांघ रही है। लेकिन इसके बावजूद जब कथावाचकों पर जातिगत हमले होते हैं, तो यह सामाजिक विघटन की ओर संकेत करता है।

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धर्म और सामाजिक समानता के बीच की खाई

यह घटना और उस पर उठी बहस भारत की उस जटिलता को भी उजागर करती है जो धर्म और जाति के बीच संतुलन की तलाश में उलझी हुई है। क्या धर्म का मंच, जो आत्मा की मुक्ति और सार्वभौमिक प्रेम की बात करता है, वहां भी जाति की दीवारें रहनी चाहिए?

इस सवाल का उत्तर ढूंढना सिर्फ धार्मिक गुरुओं की जिम्मेदारी नहीं है, बल्कि समाज को भी आत्मनिरीक्षण करना होगा कि क्या हम अब भी मध्यकालीन सोच में बंधे रहना चाहते हैं या फिर नई चेतना के साथ आगे बढ़ना चाहेंगे।

इटावा की घटना केवल दो कथावाचकों के साथ हुई मारपीट नहीं है, यह उस सामाजिक मनोवृत्ति की अभिव्यक्ति है जो अभी भी धर्म के क्षेत्र में जाति को सर्वोच्च मानती है। लेकिन साथ ही, देश भर में विभिन्न जातियों के कथावाचकों की उपस्थिति यह साबित करती है कि समय बदल रहा है, और अब कथावाचन एक समावेशी मंच बनता जा रहा है।

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