“उत्तर प्रदेश की राजनीति में अब धार्मिक छवियां नए सियासी समीकरण गढ़ रही हैं। अखिलेश यादव मस्जिद में, योगी मंदिर में—क्या यह चुनावी रणनीति का हिस्सा है? जानिए इस सियासी रंगभेद पर विस्तृत विश्लेषण।
अंजनी कुमार त्रिपाठी की रिपोर्ट
उत्तर प्रदेश की राजनीति एक बार फिर रंग बदलती नज़र आ रही है—और इस बार यह रंग धार्मिक प्रतीकों की ज़ुबान में खुद को व्यक्त कर रहा है। सपा प्रमुख अखिलेश यादव मस्जिद में नमाज़ियों के बीच तस्वीर खिंचवाते नजर आते हैं, तो वहीं मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ कांवड़ यात्रा में फूल बरसाते दिखते हैं। सवाल यह है कि यह सिर्फ ‘धार्मिक आयोजन’ हैं या फिर 2027 के विधानसभा चुनाव की सुनियोजित सियासी रंगशाला का हिस्सा?
🔴 सियासत में सेक्युलरिज्म या संयोग?
अखिलेश यादव की मस्जिद में मौजूदगी को बीजेपी “तुष्टिकरण की राजनीति” बता रही है, जबकि सपा इसे “गंगा-जमुनी तहजीब” के प्रतीक के रूप में पेश कर रही है। दूसरी ओर, योगी आदित्यनाथ की मंदिर यात्राएं, धार्मिक आयोजनों में गहरी भागीदारी और कांवड़ियों पर पुष्पवर्षा—यह सब भाजपा के “हिंदुत्व प्लस विकास” फॉर्मूले को और चमकाने की कोशिश मालूम होती है।
दोनों छोरों पर दो तस्वीरें हैं—लेकिन एक ही लक्ष्य: जनता का भरोसा और सत्ता की वापसी।
🟢 क्या यूपी में ‘भगवा-हरा गठजोड़’ का संकेत है ये?
यहां एक रोचक परिदृश्य उभरता है—क्या यूपी की राजनीति अब धार्मिक ध्रुवीकरण से इतर सांकेतिक समन्वय की ओर बढ़ रही है? क्या सपा अब केवल मुसलमानों की पार्टी की छवि को तोड़ना चाहती है और क्या भाजपा अपने कट्टर हिंदुत्व से इतर समावेशी चेहरा दिखाने की कोशिश कर रही है?
हालांकि, यह भी संभव है कि यह सिर्फ प्रतिस्पर्धी ध्रुवीकरण है—एक पक्ष मुस्लिमों को साधे, दूसरा हिंदुओं को। जनता के बीच ध्रुवीकरण बना रहे, परंतु संतुलन दिखे।
🟣 राजनीति की नई पटकथा: प्रतीकों का युद्ध
धार्मिक प्रतीक अब जनसभाओं के मंच नहीं, बल्कि सोशल मीडिया की दीवारों पर भिड़ रहे हैं। एक ओर मंदिर में आरती करते योगी, दूसरी ओर मस्जिद में टोपी पहने अखिलेश—ये तस्वीरें किसी भी टीवी डिबेट में शामिल होने के लिए काफी हैं।
यह प्रतीकों की लड़ाई है, जो वोट बैंक के मानस को छूने की होड़ में लड़ी जा रही है। यहां नारा नहीं बदल रहा, लेकिन छवि का कॉस्मेटिक मेकअप ज़रूर हो रहा है।
🟡 क्या वाकई बदल रहा है यूपी?
उत्तर प्रदेश में मतदाता अब धर्म और जाति से आगे बढ़कर स्थायित्व, विकास, रोजगार और सुरक्षा की राजनीति को पसंद करने लगे हैं। लेकिन सियासी दल अभी भी उन्हें पुरानी भाषाओं में लुभाना चाहते हैं।
तो क्या वाकई ‘भगवा’ और ‘हरा’ अब साथ-साथ चल रहे हैं, या बस चुनावी मजबूरियों ने रंगों को पास खड़ा कर दिया है?
🔵 रणनीति या नीयत?
यह स्पष्ट है कि मस्जिद में अखिलेश और मंदिर में योगी—दोनों छवियां सिर्फ व्यक्तिगत आस्था का मामला नहीं हैं। यह सार्वजनिक मंच पर रखी गई सियासी मोहरें हैं, जो जनता की धार्मिक चेतना को चुनावी गणित में ढालने की कोशिश कर रही हैं।
आने वाले महीनों में यह स्पष्ट हो जाएगा कि यह सिर्फ एक ‘फोटो ऑप’ था या फिर रणनीतिक बदलाव की नींव।