अनिल अनूप
शिक्षकों के सम्मान और सरकारी फरमानों की विवेचना करता यह विश्लेषणात्मक लेख बताता है कि क्या शिक्षक अब केवल दिखावे का पात्र बन चुके हैं? क्या समर्पित शिक्षक की बलि ही शिक्षा नीति का आधार बन रही है?
जब सम्मान की परिभाषा खुद ही कठघरे में हो
वर्तमान समय में शिक्षा विभाग की नीतियों और शिक्षकों के प्रति व्यवहार पर गंभीर प्रश्नचिन्ह खड़े हो रहे हैं। एक ओर शिक्षक दिवस पर शिक्षकों को सम्मानित करने की परंपरा है, वहीं दूसरी ओर प्राकृतिक आपदा में शिक्षकों को अनिवार्य उपस्थिति के नाम पर जान जोखिम में डालनी पड़ रही है। तो क्या यही है शिक्षक का सम्मान? क्या शिक्षकों को केवल औपचारिकता और दिखावे का माध्यम मान लिया गया है?
कठोर आदेशों की कीमत: समर्पित शिक्षक की शहादत
सबसे पहले बात करते हैं उस आदेश की, जिसने एक शिक्षक को जीवन से वंचित कर दिया। मंडी जिला के थुनाग क्षेत्र में बादल फटने की भयावह घटना के बावजूद विभागीय आदेश के चलते शिक्षक सोहन सिंह को विद्यालय पहुंचना पड़ा। यह जानते हुए भी कि मौसम अत्यंत खराब है, वह स्कूल पहुंचे और हादसे का शिकार हो गए। आज उनका शव तक परिजनों को नहीं मिल पाया है।
इस पर सोचने की आवश्यकता है:
- क्या शिक्षक अन्य सरकारी कर्मचारियों की तरह मानवीय छूट के हकदार नहीं हैं?
- क्या विभागीय आदेशों में संवेदनशीलता और व्यावहारिकता का कोई स्थान नहीं बचा?
- सम्मान या आत्मप्रचार? राष्ट्रीय शिक्षक पुरस्कार की सच्चाई
अब बात उस दूसरे आदेश की, जो और भी अधिक विडंबनात्मक है। राष्ट्रीय शिक्षक पुरस्कार 2025 के लिए शिक्षकों से “स्वयं आवेदन” करने का आग्रह किया गया है। यानी शिक्षक खुद बताएँ कि उन्होंने कितने काम किए हैं, कितनी तस्वीरें खिंचवाई हैं और कैसे वे इस पुरस्कार के योग्य हैं।
गंभीर प्रश्न यह है:
- क्या यही है शिक्षक सम्मान?
- क्या सम्मान अब भीख की तरह माँगने का विषय बन चुका है?
- सम्मान पाने की होड़ में खोती गई आत्मा
तकनीक के इस युग में, जब विभाग के पास डिजिटल माध्यमों से शिक्षकों के काम की निगरानी संभव है, तब भी यदि तस्वीरों और स्ववर्णन के आधार पर सम्मान मिल रहा है तो यह केवल दिखावे को।
दुखद बात यह है कि कुछ प्रधानाचार्य सोशल मीडिया पर अन्य शिक्षकों को नीचा दिखाकर अपने स्कूल की “इमेज” गढ़ते हैं, और ऐसे ही लोग सम्मान के लिए आवेदन करते हैं। यह न केवल अन्य शिक्षकों का आत्मसम्मान कुचलता है, बल्कि शिक्षा व्यवस्था की आत्मा को भी आहत करता है।
क्या खो गया शिक्षक और शिक्षा के बीच?
यह आलेख हमें यह सोचने को मजबूर करता है कि—
- क्या हम वास्तव में शिक्षक के “कर्तव्य” और “सम्मान” के अंतर को समझते हैं?
- क्या सरकारी तंत्र सिर्फ उन शिक्षकों को पुरस्कृत कर रहा है जो प्रशासन को प्रिय हैं या प्रचार में आगे हैं?
- यह भी विचारणीय है कि ऐसे शिक्षकों की उपेक्षा की जा रही है जो वास्तविक रूप से शिक्षा को समाज की रीढ़ बनाते हैं—वो शिक्षक जो विज्ञान पढ़ाते हुए छात्रों में तर्क की चेतना जाग्रत करते हैं, या हिंदी पढ़ाते हुए साहित्य के मर्म से उन्हें जोड़ते हैं।
- सम्मान की सही कसौटी: सेवा या स्वीकृति?
जब सम्मान पाने की लालसा सेवा से आगे निकल जाती है, तब वह नैतिक पतन की शुरुआत होती है। यह ध्यान देने की बात है कि जो शिक्षक सम्मान के लिए नौकरशाही तंत्र को साधने में माहिर हैं, वही इस पुरस्कार के लिए चयनित हो रहे हैं।
पर क्या एक शिक्षक का कार्य बच्चों को काग़ज़ों में कैद करना है या जीवन में मार्गदर्शक बनना?
शिक्षक होना जिम्मेदारी है, प्रचार नहीं
वर्तमान शिक्षा व्यवस्था को आत्मावलोकन की आवश्यकता है। जिस देश ने डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन जैसे शिक्षकों को राष्ट्रपति बनाया, वहां आज शिक्षक स्वयं को सम्मानित करवाने के लिए दस्तावेज़ों की भीख मांगते फिर रहे हैं।
शिक्षक का असली सम्मान तभी होगा—
जब उसकी निष्ठा और योगदान को तथ्यों और साक्ष्यों के बिना भी पहचाना जाएगा।
जब उसकी कर्तव्यनिष्ठा को सरकारी आदेशों की बलि नहीं चढ़ाया जाएगा।
जब उसके समर्पण को आंकने का मापदंड फॉर्म भरना नहीं, बल्कि छात्रों का विकास होगा।
अपने अंतर्मन से पूछिए…
क्या आप एक ऐसे देश की कल्पना करते हैं जहां शिक्षक केवल फोटो खिंचवाने और प्रमाणपत्रों के बल पर ही सम्मान पाएं? या एक ऐसे देश की, जहां शिक्षक बिना बोले, अपने कर्मों से पहचाने जाएं?
यदि उत्तर दूसरा है, तो आइए मिलकर एक ऐसी व्यवस्था बनाएं जहां सम्मान मांगना न पड़े, बल्कि वह शिक्षक की छाया बन जाए।
यह लेख समाज, नीति निर्माताओं और शिक्षकों के लिए एक आइना है। शिक्षक दिवस से पहले यह आत्ममंथन आवश्यक है कि क्या हम वाकई शिक्षक का सम्मान कर रहे हैं, या उसका शोषण?