Monday, July 21, 2025
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लखनऊ की नवाबी रवायतों से आधुनिक ज़िंदगी तक की एक दिलनवाज़ यात्रा ; जहाँ सलीका साँस लेता है और तहज़ीब ज़िंदा रहती है… . 

➡️अनिल अनूप

लखनऊ की ख़ाक में जो खुशबू है, वह केवल इतर और गुलाबजल की नहीं, बल्कि उस तहज़ीब की है जो सदियों से दिलों को जोड़ती आ रही है। अदब यहाँ की ज़ुबान है, और लिहाज़ यहाँ का धर्म। और इस अदबी तहज़ीब की रूह है — दस्तरख़ान।

जहाँ बाकी शहरों में खाने के लिए “मेज़” बिछती है, लखनऊ में दस्तरख़ान बिछता है — और वह भी तस्लीम, तहज़ीब और तक़रीब के साथ।

दस्तरख़ान: नवाबी दौर की एक मिसाल

नवाबी दौर में जब लखनऊ अपनी रौ में था, तब खाने को केवल पेट भरने का ज़रिया नहीं माना जाता था। खाना एक महफ़िल होती थी, और दस्तरख़ान उस महफ़िल की बुनियाद।

नवाब वाजिद अली शाह के दस्तरख़ान पर 72 किस्म के व्यंजन परोसे जाते थे। लेकिन उस शान-ओ-शौकत में भी एक नफ़ासत थी। रोज़े के इफ्तार पर अगर एक फकीर भी दस्तरख़ान पर आ जाए, तो सबसे पहले उसे लुक़्मा दिया जाता। यह वह तहज़ीब थी जहाँ खाने की रौनक बराबरी और मोहब्बत में थी, न कि दिखावे में।

शायरी में दस्तरख़ान की छवि

उर्दू शायरी में भी दस्तरख़ान का ज़िक्र बड़े सलीके से हुआ है, जो उसकी अहमियत और रूहानियत को दर्शाता है। कुछ मिसालें देखिए:

“दस्तरख़ान बिछा तो आए कई फ़क़ीर,

हम ने घर को सजाया था दोस्तों के लिए।”

— नामालूम शायर

“हर निवाला है मुहब्बत की कहानी जैसा,

ये जो दस्तरख़ान है, वो भी इक निशानी जैसा।”

— बशीर बद्र

“हमसे मत पूछो दस्तरख़ान की ताज़गी,

माँ के हाथों से सजी थाली की बात ही कुछ और है।”

एक किस्सा: दस्तरख़ान और दरवेश

लखनऊ की गलियों में आज भी एक किस्सा मशहूर है। कहते हैं कि एक बार नवाब आसफ़-उद-दौला के महल में दस्तरख़ान बिछा था — उम्दा पकवान, बेमिसाल तश्तरी और शाही तौर-तरीक़े। इतने में एक फकीर आकर दरवाज़े पर रुका और कहा:

“जिस घर में दस्तरख़ान है, वहाँ भूखा रहूं, मुनासिब नहीं।”

नवाब ने बिना एक पल गँवाए कहा,

“उसकी भूख मेरी दस्तरख़ान की बरकत है।”

फकीर ने खाया, दुआ दी — और उस दिन से नवाब के दस्तरख़ान पर कभी कमी नहीं आई। यह सिर्फ दास्तान नहीं, लखनऊ की सोच का एक सबूत है।

आधुनिक संदर्भ में दस्तरख़ान

आज भले ही शहर बदल गए हैं, पर दस्तरख़ान की अहमियत नहीं बदली। किसी गाँव में बिछा सादा चटाई वाला दस्तरख़ान हो या किसी शहरी घर में शाम की थाली — यह आज भी रिश्तों को सीता है।

कई बार एक नौजवान अपने काम से थका-हारा लौटता है, और अम्मी के हाथों से बिछे दस्तरख़ान पर बैठकर जो सुकून पाता है, वह किसी आलीशान होटल में नहीं मिलता।

दस्तरख़ान — तहज़ीब की नब्ज़, बरकत का पैग़ाम

दस्तरख़ान पर महज़ खाना नहीं रखा जाता — वहाँ तमीज़, लिहाज़, मोहब्बत और बरकत भी सजती है। यह वो जगह है जहाँ दिल मिलते हैं, जहाँ सलीका साँस लेता है, और जहाँ तहज़ीब ज़िंदा रहती है।

आख़िर में एक शेर जो इस पूरे भाव को समेटता है:

“जहाँ लुक़्मा मोहब्बत से पेश किया जाए,

समझो वही दस्तरख़ान है, वही खुदा की राह है।”

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