[यह साहित्यिक संपादकीय सावन मास की सांस्कृतिक, प्राकृतिक और आध्यात्मिक विशेषताओं पर केंद्रित है। इसमें स्त्री जीवन, लोक परंपराएँ, शिव भक्ति और आधुनिक समाज में सावन की प्रासंगिकता को भावनात्मक और विश्लेषणात्मक शैली में प्रस्तुत किया गया है।]
अनिल अनूप
जब पहली फुहार धरती पर गिरती है, तो केवल मिट्टी ही नहीं महकती — मन भी महक उठता है। और जब सावन आता है, तब यह महक किसी व्यक्तिगत स्मृति की तरह नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक उत्सव की तरह फूटती है। सावन केवल एक महीने का नाम नहीं है, यह भारतीय मानस की छवि है — जिसमें भक्ति भी है, विरह भी, श्रृंगार भी और सृष्टि का संगीत भी।
सावन का समय : ऋतुचक्र में सौंदर्य की चरम परिणति
भारतीय पंचांग के अनुसार सावन (श्रावण मास) वर्षा ऋतु का हृदय है। यह आषाढ़ के गर्म और उमस भरे अंतिम दिनों के बाद आता है और भाद्रपद की सौम्यता की ओर बढ़ता है। यह वह समय है जब आकाश फट पड़ता है, नदियाँ उमड़ती हैं, ताल-तलैया जागते हैं और सूखी-सूनी भूमि हरियाली से भर जाती है। यह हरापन केवल प्रकृति में नहीं होता, हमारे भावों में भी उतरता है।
पेड़ों की पत्तियाँ जैसे धुलकर चमकने लगती हैं। आम और जामुन की गंध हवाओं में घुल जाती है। खेतों में धान के नर्म पौधे लहरा उठते हैं और कहीं दूर मूसलधार बारिश में बच्चों की किलकारियाँ सुनाई देती हैं। यह दृश्य किसी चित्रकार की कल्पना नहीं, सावन की सच्चाई है।
सावन की स्त्री – रंग, राग और रीति की प्रतीक
सावन स्त्री के लिए विशेष अर्थ रखता है। यह उसका महीना है — सौंदर्य का, श्रृंगार का, प्रतीक्षा और प्रार्थना का। उत्तर भारत के गाँवों में इस महीने में विवाहित महिलाएँ हरे रंग की साड़ियों, चूड़ियों और बिंदी से सजती हैं। हरियाली तीज, कजरी तीज, झूला पर्व — यह सब स्त्री जीवन की स्मृतियों और उत्सवों में घुला रहता है।
कजरी गीतों में जब कोई बिरहा गाती है —
“काहे को ब्याही बिदेस रे ललना…”
तो उसमें न केवल उसका निजी दुख झलकता है, बल्कि वह पूरे स्त्री समाज की सांस्कृतिक अभिव्यक्ति बन जाता है। सावन में प्रेमी की प्रतीक्षा, पति की राह देखना, ससुराल में मायके की यादें — ये सब भावनाएँ स्त्री के जीवन में संचित होकर गीतों में पिघलती हैं।
झूलों का चलना, गीतों का गाना, सहेलियों का संग — यह सब उस स्त्रीत्व की अभिव्यक्ति है जो ऋतुओं से जुड़ा हुआ है। यह वही महीना है जब स्त्रियाँ गीली मिट्टी से शिवलिंग बनाकर पूजा करती हैं, व्रत रखती हैं, और चाँद को निहारती हैं।
शिव और सावन : भक्ति की गहराई
श्रावण का महीना शिवभक्ति के लिए भी अत्यंत विशेष है। देवों के देव महादेव, जो कैलाश के शांत शिखरों पर तपस्यारत हैं, सावन में उनके भक्तों के बीच उतर आते हैं। सोमवार के व्रत, शिवलिंग पर जल चढ़ाना, बेलपत्र अर्पण करना — ये सब केवल धार्मिक कर्मकांड नहीं, बल्कि एक आध्यात्मिक संबंध की पुनर्पुष्टि हैं।
कहते हैं कि समुद्र मंथन में निकला विष भगवान शिव ने सावन के महीने में ही पिया था। तभी से यह महीना उन्हें समर्पित हो गया। जब सावन की घटाएँ उमड़ती हैं, तब शिव के गले का नीला रंग और अधिक गहरा दिखता है — वह केवल पौराणिक नहीं, प्रतीकात्मक भी है — विषपान की शक्ति, कष्टों को आत्मसात करने की क्षमता।
बोल बम यात्राएँ, कांवरियों की पदयात्रा — यह सब किसी श्रद्धा की सामान्य परंपरा नहीं, बल्कि सामूहिक चेतना की ऊर्जा है। गंगा जल लेकर काँवर में, दूर-दूर से आए लोग जब ‘बोल बम’ के उद्घोष के साथ शिवधाम की ओर बढ़ते हैं, तब वे केवल एक यात्रा नहीं करते — वे अपनी आत्मा का शुद्धिकरण करते हैं।
प्राकृतिक सौंदर्य की महागाथा
सावन की बरसात केवल खेतों के लिए नहीं आती, वह कवियों के लिए भी आती है। यह वह समय है जब कालिदास ‘मेघदूत’ लिखते हैं, जब तुलसीदास ‘बरसें बदरिया साँवरी’ की कल्पना करते हैं, और जब बिहारी अपने दोहों में पपीहे की प्यास को प्रेम की भूख बना देते हैं।
“कागा बोले कूक के, पपीहा पिऊ-पिऊ। सावन मन भावन भयो, सब सुख साथ जिऊ।”
सावन का एकांत कवि के भीतर का कोलाहल बन जाता है। वह उदासी भी है, और उन्माद भी। एक पल में मन राधा की तरह विरह में भीगता है, तो दूसरे ही पल कृष्ण की बाँसुरी की गूँज सुनकर झूम उठता है। यह महीना स्वयं एक कविता है — जो न किसी एक रस में है, न एक राग में।
लोकगीतों और लोकनृत्यों में सावन की बयार
सावन में लोक-संगीत का सैलाब उमड़ पड़ता है। कजरी, झूला, बारहमासा और सावनी गीतों के सुर गाँवों की गलियों, खेतों और चौपालों से निकलकर सीधे हृदय तक पहुँचते हैं। लोक गायकों की आवाज़ में वह मिट्टी की सोंधी गंध होती है जो रेडियो या मंचों से नहीं, केवल देहात की धूल से आती है।
बिहार और पूर्वांचल में कजरी की परंपरा अद्भुत है। मानसून की पहली फुहारों के साथ ही यह गीत फूटते हैं। भोजपुरी और अवधी में गाए जाने वाले ये गीत स्त्री की आकुलता, प्रेम की प्यास और विरह की वेदना को स्वर देते हैं।
“काहे को ब्याही बिदेस, सखी रीत ऐसी काहे बनी…”
इसमें आँचल भीगता है और आँखें भी।
राजस्थान में ‘घूमर’, बंगाल में ‘बार्षिक नाच’, पंजाब में ‘तीज का गिद्दा’ — ये सब सावन को आत्मसात करने के लोक-अभिव्यक्तियाँ हैं।
सावन और समकालीन जीवन : विस्मृति या पुनर्जागरण?
आज के शहरी जीवन में सावन धीरे-धीरे परंपरा की जगह एक ‘कैलेंडर इवेंट’ बनता जा रहा है। इंस्टाग्राम पर हरे कपड़े पहनकर फोटो अपलोड करना या मंदिर जाकर फोटो खिंचवाना इस महीने के आध्यात्मिक और सांस्कृतिक गूढ़ार्थ का केवल बाहरी अनुकरण है। लेकिन फिर भी कुछ ऐसे गाँव, कस्बे और परिवार आज भी हैं जहाँ सावन का पहला दिन धरती पर जल छिड़कने और तुलसी पर दीपक जलाने से शुरू होता है।
स्कूलों में सावन के गीतों पर नृत्य, संस्थानों में हरियाली प्रतियोगिताएँ — ये सब संकेत हैं कि परंपरा पूरी तरह से लुप्त नहीं हुई है। बल्कि यह आधुनिकता में ढलकर अपने नए रूप खोज रही है।
सावन की चेतना : भीतर का हरापन
सावन केवल बाहर की हरियाली नहीं, भीतर के हरेपन की याद दिलाता है। यह हमें याद दिलाता है कि जीवन केवल उपभोग नहीं, प्रतीक्षा और संयम भी है। यह समय है प्रेम को जीने का, विरह को समझने का और प्रकृति से संवाद का।
जब वर्षा की बूँदें किसी पत्ते पर गिरती हैं, तो वह केवल ध्वनि नहीं होती — वह एक भाषा है, जिसे समझने के लिए मन को मौन करना पड़ता है।
अंतिम बूँद : सावन की ओर लौटना
सावन कोई पुरानी स्मृति नहीं है, वह जीवंत है — मिट्टी में, स्त्री के कंगनों में, शिव के त्रिशूल में और कवि की कलम में। यह वह महीना है जब समय थोड़ी देर ठहरता है, मन अपने भीतर लौटता है और आसमान कुछ कहने लगता है।
तो आइए, इस सावन, केवल भीगें नहीं — भीतर से हरियाली की ओर लौटें। जैसे कोई पुरानी कविता दोबारा पढ़ते हैं, वैसे ही सावन को फिर से महसूस करें। क्योंकि यही महीना है जब प्रकृति भी कविता बन जाती है और जीवन खुद एक राग बन जाता है — सावन राग।