Sunday, July 20, 2025
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कांवड़ यात्रा की आस्था बनाम उन्मादी राजनीति — धार्मिक सौहार्द की अग्निपरीक्षा

“धर्म का मार्ग शांति से होकर जाता है, लेकिन जब आस्था को उन्माद की जंजीरों में जकड़ दिया जाए, तो वह राजनीति की दासी बन जाती है।”

अनिल अनूप

भारत की सड़कों पर एक बार फिर श्रद्धा के काफिले निकलने को तैयार हैं। 11 जुलाई से शुरू हो रही कांवड़ यात्रा, शिवभक्तों की आस्था और निष्ठा का विशाल जनसैलाब, देश की धार्मिक परंपराओं की जीवंत मिसाल बनकर निकलती है। लेकिन पिछले कुछ वर्षों में इस यात्रा के इर्द-गिर्द जो सामाजिक और सांप्रदायिक तनाव उत्पन्न हुआ है, वह हमें एक गहरे आत्मावलोकन की ओर धकेलता है।

बीते वर्षों में हमने देखा है कि किस प्रकार इस आध्यात्मिक यात्रा को धार्मिक उन्माद, असहिष्णुता और संकीर्ण राजनीति की आग में झोंक दिया गया। वह यात्रा, जो कभी शिवभक्तों और मुस्लिम समाज के बीच मेल-जोल और सेवा का सेतु बनती थी, आज संदेह और पहचान-परीक्षण का मैदान बन चुकी है। यह परिवर्तन न केवल खतरनाक है, बल्कि भारत की गंगा-जमुनी तहज़ीब के लिए एक गंभीर चुनौती भी है।

पहचान का परीक्षण या विश्वास का पतन?

उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड की भाजपा सरकारों ने एक बार फिर आदेश जारी किए हैं कि कांवड़ मार्गों पर स्थित ढाबे, होटल, दुकानदार आदि स्पष्ट रूप से अपनी पहचान दर्शाएं—वे हिंदू हैं या मुस्लिम? यह वही आदेश है, जिसे पिछले वर्ष सर्वोच्च न्यायालय ने अंतरिम आदेश द्वारा रोक दिया था। अदालत ने स्पष्ट किया था कि व्यवसायिक संस्थानों की पहचान जरूरी नहीं, बल्कि यह जानकारी महत्वपूर्ण है कि वे शाकाहारी भोजन परोसते हैं या मांसाहारी, ताकि कांवड़ यात्री अपनी आस्था के अनुरूप चयन कर सकें।

लेकिन इस संवैधानिक आदेश को ताक पर रखकर एक बार फिर राज्य सरकारें वही सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का खेल खेल रही हैं, जिसने देश की सामाजिक समरसता को बीते दशक में बुरी तरह झकझोरा है।

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ढाबे पर ‘पैंट उतार जांच’—किसने दी अनुमति?

राष्ट्रीय राजमार्ग-58 पर ‘पंडित का शुद्ध वैष्णो ढाबा’ नामक एक प्रतिष्ठान पर कथित हिंदूवादी कार्यकर्ताओं ने यह संदेह जताया कि यह मुस्लिम के स्वामित्व वाला है, और उसने अपनी पहचान छिपाकर पाखंड किया है। आरोप है कि उन्होंने वहां काम करने वाले कर्मचारियों की पैंट उतरवाकर उनकी धार्मिक पहचान जानने की कोशिश की। यह घटना न केवल घिनौनी है, बल्कि संविधान, कानून और मानव गरिमा का सीधा अपमान भी है।

ऐसी हरकत किसी अपराध से कम नहीं मानी जानी चाहिए, लेकिन आश्चर्य यह है कि यह सब उस राज्य में हुआ जहां पुलिस प्रशासन बेहद मजबूत माना जाता है। प्रश्न यह भी है कि जब पुलिस के पास पहले से ही ढाबों और दुकानों की पूरी जानकारी है, तो इन ‘संघ-संरक्षित स्वयंभू रक्षकों’ को किसने यह ‘पवित्र अधिकार’ सौंप दिया कि वे जांच के नाम पर उत्पीड़न करें?

जब सेवा भाव था, तब कैसा था समाज?

याद कीजिए वो दिन, जब कांवड़ यात्रा के दौरान मुस्लिम समुदाय न केवल कांवड़ियों की सेवा करता था, बल्कि अपने इलाकों में शिविर लगाकर शरबत, फल, प्राथमिक चिकित्सा की व्यवस्था करता था। रामपुर, मेरठ, मुजफ्फरनगर, हरिद्वार से लेकर गाजियाबाद और मुरादाबाद तक—इन यात्राओं में धार्मिक सद्भाव झलकता था।

कांवड़ यात्रा सिर्फ धार्मिक आस्था नहीं, बल्कि भारतीय समाज में आपसी सहयोग और सह-अस्तित्व का उदाहरण बनती रही है। लेकिन जब इसे एक राजनीतिक परियोजना बना दिया गया, तो सेवा की जगह संदेह, सहयोग की जगह कटुता और आस्था की जगह दंभ ने ले ली।

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क्या कांवड़ियों को भी नहीं चाहिए सौहार्द?

इस पूरे विवाद के बीच यह भी समझना ज़रूरी है कि लाखों की संख्या में आने वाले कांवड़ यात्री स्वयं भी सांप्रदायिक राजनीति के मोहरे नहीं बनना चाहते। वे सुरक्षित यात्रा, स्वच्छता, सेवा और श्रद्धा चाहते हैं। उन्हें इससे कोई लेना-देना नहीं कि शरबत देने वाला कौन है, या छांव में बैठने की जगह किसकी है। फिर उनके नाम पर, उनके भरोसे पर, यह उन्माद और नफरत क्यों फैलाई जा रही है?

सांप्रदायिकता की समानांतर तस्वीर—अमरनाथ यात्रा

जब हम उत्तर भारत में कांवड़ यात्रा के नाम पर इस तरह के संकीर्ण खेल देखते हैं, तब हमारा ध्यान स्वतः अमरनाथ यात्रा की ओर जाता है। वह यात्रा, जो दुर्गम और खतरनाक क्षेत्रों से होकर गुजरती है। लेकिन वहां प्रशासन से लेकर श्राइन बोर्ड के साथ सहयोग करने वाले अधिकतर मुस्लिम कर्मचारी होते हैं। वे न केवल व्यवस्था संभालते हैं, बल्कि हिंदू श्रद्धालुओं की सेवा को अपना कर्तव्य मानते हैं। तो फिर यह अंतर क्यों?

क्या यह संभव नहीं कि जो समरसता कश्मीर की वादियों में है, वही उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश की घाटियों में भी दिखाई दे?

राजनीति का ज़हर और चुनावी संतुलन

लोकसभा चुनाव 2024 के परिणामों ने भाजपा को उत्तर प्रदेश में गहरा झटका दिया। इसके बाद जो बयानबाज़ी सामने आई—“अब ऐसा हिंदू-मुसलमान करेंगे कि सब देखते रह जाएंगे”—वह आज साकार होती दिख रही है। एक तरफ पहलगाम में आतंकियों ने धर्म पूछकर लोगों को गोली मारी, दूसरी ओर कांवड़ यात्रा में धर्म पूछकर पैंट उतरवाई जा रही है। क्या यह केवल संयोग है?

समाजवादी पार्टी के नेता एसटी हसन ने इस तुलना को लेकर जो तीखी प्रतिक्रिया दी, उसमें भले तीव्रता हो, लेकिन उसका अर्थशास्त्र सामाजिक विवेक में छुपा हुआ है। यदि किसी राज्य में धर्म के नाम पर अपमान की यह परंपरा चालू हो जाए, तो वह राज्य किसी असभ्य समाज का हिस्सा बनता है, न कि लोकतांत्रिक भारत का।

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क्या यह कानून का राज है?

यह प्रश्न हर संवेदनशील भारतीय को मथ रहा है। क्या उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड की सरकारें खुद को कानून से ऊपर मानने लगी हैं? क्या उनके लिए सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों का कोई मोल नहीं? क्या यह आदेश इसलिए लाया गया कि अपने ‘राजनीतिक बेस’ को एक बार फिर भड़काकर मजबूत किया जाए?

आज आवश्यकता इस बात की है कि हम उन लोगों की पहचान करें जो आस्था के नाम पर विष फैलाने का कार्य कर रहे हैं, और उन्हें उसी कसौटी पर कसें, जिस पर किसी आतंकी को कसा जाता है। देश में कोई भी कानून किसी को दूसरे की धार्मिक पहचान सार्वजनिक रूप से जांचने की अनुमति नहीं देता—न संवैधानिक रूप से, न सामाजिक रूप से।

कांवड़ यात्रा भारत की एक धार्मिक परंपरा है—शिव की भक्ति और आत्मशुद्धि का प्रतीक। इसे राजनीतिक उन्माद का माध्यम बनाना शिव के ‘वैराग्य’ और ‘करुणा’ का अपमान है। हमें यह समझना होगा कि धर्म वही है जो सेवा करे, और वह अधर्म है जो किसी की पहचान उजागर कर उसे अपमानित करे।

यदि हम धर्म को डर का माध्यम बना देंगे, तो एक दिन यह डर ही समाज को निगल जाएगा।

और तब न शिव रहेंगे, न मुसाफिर…

सिर्फ नफरत का धुआं होगा, जो हर पहचान को राख में बदल देगा

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