Sunday, July 20, 2025
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दिल्ली की वो काली दोपहर – जब इंसानियत ने दम तोड़ दिया

1978 का रंगा-बिल्ला रेप और मर्डर केस भारत के इतिहास के सबसे क्रूर अपराधों में से एक है। जानिए कैसे इस घटना ने दिल्ली को ‘रेप कैपिटल’ की ओर धकेला और आखिरकार कैसे अपराधियों को मिली फांसी।

ठाकुर बख्श सिंह की रिपोर्ट

🔍एक साधारण दिन जो भयावह मोड़ ले गया

26 अगस्त 1978, दिल्ली की बारिश में एक सामान्य दिन की तरह शुरू हुआ। नौसेना अधिकारी मदन मोहन चोपड़ा के दो बच्चे—गीता और संजय—ऑल इंडिया रेडियो (AIR) के एक यूथ कार्यक्रम ‘युववाणी’ में हिस्सा लेने निकले थे। गीता दिल्ली यूनिवर्सिटी की छात्रा थी और संजय स्कूल का होनहार छात्र।

हालाँकि, नियति ने उस दिन उनके लिए कुछ और ही लिख रखा था।

🚖 अपहरण: जब हवस ने इंसानियत को रौंदा

धौला कुआं से निकलने के बाद दोनों ने एक परिचित डॉक्टर की कार से लिफ्ट ली और गोल डाकखाना के पास उतरे। वहां से AIR भवन पैदल ही जा रहे थे कि तभी एक फिएट कार अचानक रुकी। कार में मौजूद दो शातिर अपराधी—कुलजीत सिंह उर्फ रंगा और जसबीर सिंह उर्फ बिल्ला—ने उन्हें जबरन गाड़ी में खींच लिया।

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इस जघन्य हरकत को कुछ राहगीरों और दुकानदारों ने देखा और पुलिस को सूचना दी, लेकिन तब तक अपराधी निकल चुके थे।

🌲 जंगल में मिली लाशें: दिल्ली की रूह काँप उठी

अगले दो दिन तक बच्चों का कोई सुराग नहीं मिला। अंततः 28 अगस्त को दिल्ली रिज के जंगल में एक चरवाहे को दोनों की लाशें मिलीं। पोस्टमॉर्टम से यह सामने आया कि गीता के साथ बलात्कार हुआ था और दोनों की बेरहमी से हत्या कर दी गई थी।

😠 अपराधी कौन थे?

रंगा और बिल्ला पहले से ही अपराध की दुनिया के पुराने खिलाड़ी थे। हत्या, डकैती और लूट जैसे मामलों में वांछित यह दोनों अपराधी वारदात के बाद आगरा भाग गए थे। लेकिन किस्मत ने धोखा दिया—वे सेना की बोगी में चढ़ गए और वहीं से पकड़े गए।

⚖️कानून का न्याय: मौत की सज़ा और उसका क्रूर अंत

दिल्ली हाईकोर्ट और फिर सुप्रीम कोर्ट ने दोनों को मौत की सजा सुनाई। अंतिम फैसला 7 अप्रैल 1979 को आया और 31 जनवरी 1982 को तिहाड़ जेल में दोनों को फांसी दी गई।

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फांसी के दौरान एक चौंकाने वाला मोड़ आया—जहाँ बिल्ला की मौत हो चुकी थी, वहीं रंगा की नब्ज़ चल रही थी। नियमों के तहत मौत की पुष्टि ज़रूरी थी, इसलिए एक पुलिसकर्मी को नीचे भेजा गया जिसने रंगा के पैर खींचे और तब जाकर उसकी मृत्यु हुई।

📖 ऐतिहासिक दस्तावेज़: ‘ब्लैक वॉरंट’ में दर्ज काले सच

तिहाड़ जेल के पूर्व अधिकारी सुनील गुप्ता और पत्रकार सुनेत्रा चौधरी की किताब ‘ब्लैक वॉरंट’ इस पूरी घटना का विस्तार से उल्लेख करती है। यह किताब बताती है कि कैसे रंगा-बिल्ला का मामला देश की न्याय व्यवस्था, जेल प्रणाली और समाजिक चेतना के लिए एक कड़ा इम्तिहान बन गया।

🔚दिल्ली का ‘रेप कैपिटल’ बनना कहाँ से शुरू हुआ?

रंगा-बिल्ला केस केवल दो मासूमों की हत्या नहीं थी, यह भारतीय समाज के नैतिक ढाँचे पर एक क्रूर प्रहार था। यही वह क्षण था जहाँ दिल्ली के लिए ‘रेप कैपिटल’ जैसी छवि बनने की शुरुआत हुई।

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आज भी यह केस एक चेतावनी की तरह हमारे सामने खड़ा है—याद दिलाने के लिए कि अपराध का सामना केवल कानून से नहीं, समाज की सजगता से भी होता है।

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